शुक्रवार, 26 जनवरी 2018

कोई मुद्दतों खफ़ा नहीं होता


मेरा भी मुझको सहारा नहीं होता |
गर साथ हमको तुम्हारा नहीं होता ||

दिल टूटना तो मंज़र-ए-आम है लेकिन |
हर बार मगर नाम तुम्हारा नहीं होता ||

दिल्लगी तो फिरभी हो सकती हो भले |
इश्क मगर हाँ फिर दुबारा नहीं होता ||

भूल ही गया होगा वो शायद |
कोई मुद्दतों खफ़ा नहीं होता ||

मजबूरियों से बेबस है हर इंसा |
कोई दिल से बेवफ़ा नहीं होता ||

सबके अपने-अपने मसीहा हैं |
खुद से कोई खुदा नहीं होता ||

अबतलक तो उसे भूल जाते हम भी |
गर वो दर्द-ए-दिल दवा नहीं होता ||

उसकी चारासाज़ी में हो न कुछ कमी पर |
जो ना होने को आए, वो अच्छा नहीं होता ||

होने को तो कुछ भी हो सकता था मगर |
अच्छा होता जो सामने धोखा नहीं होता ||

मंज़िल मेरे भी पीछे होती यकीनन ही |
यूँ मील के पत्थरों ने पुकारा नहीं होता ||

देखना है "राहत" होता है मुझको क्या क्या |
सच बोलने से अब किनारा नहीं होता ||

© गौरव दीक्षित "राहत"

बुधवार, 27 दिसंबर 2017

"ग़ालिब" के नाम खुला खत


मिर्ज़ा असदुल्लाह खां “ग़ालिब”
गली कासिम, बल्लीमारां,
दिल्ली


२७ दिसम्बर,२०१७

जनाब आदाब,

पहले-पहल आपको, आपके २२० वें यौम-ए-पैदाइश के मौके पर हमारी जानिब से दिली मुबारकबाद !! आज आपकी नज़र यह खुला खत हाज़िर कर रहा हूँ | आपसे मुखातिब होने का इससे बेहतर ज़रिया शायद मेरे पास नहीं है | वैसे आपसे मुखातिब होने के लिए यह अवसर और यह खत मात्र एक ज़रिया है, असल में यह मेरी दिली ख्वाइश थी कि जिस शख्स ने गुज़िश्ता  सालों में मुझे सबसे ज्यादा मुतासिर किया है, उससे इक गुफ्तगू का हक तो मुझ नाचीज़ के हिस्से आना ही चाहिए | तो लीजिए मैं हाज़िर हूँ, अपने खत के ज़रिए आपके दरमियाँ |

हाँ एक वादा किए देता हूँ यहाँ, चूँकि आज आप का दिन है तो ज़ाहिर है बात भी आपकी और आपके अशआरों की ही करूँगा | इसी बहाने साथ ही साथ एक कोशिश यह भी रहेगी कि अपनी सीखों को, आपकी शायरी के माध्यम से लोगों के रूबरू रखूँ ; जिससे लोग भी अपने भीतर, अपने अपने मिजाज़ का “ग़ालिब” ख़ोज सकें |
 

इब्तिदा करते हैं आपके तारुफ से, आपके ही लफ़्ज़ों में :

“वो यह कहतें हैं कि ग़ालिब कौन है ?
कोई बतलाओ कि हम बतलाएँ क्या ?”
 


फक़त दो मिसरों में अपनी मकबूलियत, बड़ी खुद्दारी से बयाँ कर गए आप | और आगे यह शेर देखिए :

“पहले आती थी हाले-दिल पे हँसी
अब किसी बात पर नहीं आती ” 


अब इसे शायर की उदास तबियत कहें या उसकी शक्सियत का बड़प्पन, आपके लिए यह फर्क कर पाना मुश्किल है | और अब देखें इन्तेज़ार की एक लाज़वाब मिसाल | दोनों मिसरे अपनी-अपनी हद में बोल रहे हैं, फिर भी क्या खूब शेर हुआ है :

“आह को चाहिए इक उम्र असर होने तक,
कौन जीता है तेरी ज़ुल्फ़ के सर होने तक ?”


इन दो मिसरों में तो कितनी सादगी से अपनी मिलनसारिता का ज़िक्र कर दिया आपने :

“मेहरबां होके बुला लो मुझे चाहो जिस वक्त,
मैं गया वक्त नहीं हूँ कि फिर आ भी ना सकूँ ”


हसरतों पर यूँ तो कई शायरों ने कई शेर कहे हैं मगर अंदाज़-ए-बयां ग़ालिब तो हमेशा से निराला ही रहा है | मसलन यह शेर देखें :

“मेरी किस्मत में गम गर इतना था,
दिल भी या रब, कई दिए होते” 


यकीनन ग़ालिब को दौर-ए-आज में वो शोहरत, वो मकबूलियत हासिल है, जिसे देख कर किसी भी शायर को रश्क हो जाए | खुद उनके समकालीन और उम्दा शायर रहे इब्राहिम जौक भी इस एहसास से खुदको दूर नहीं रख पाए थे | मगर देर सबेर वो भी खुद को “ग़ालिब” के शेरों पर दाद देने से नहीं रोक पाए थे | एक तो अपने हालातों की सच्चाइयां लिखना और तो और अगले ही मिसरे में मसाइलों से लड़ने का दम ख़म भी इस खूबी से लिख देना कि पढ़ने/सुनने वाले बरबस ही वाह !! कह उठे | यह देखिए उसकी मिसाल :

“रंज से खूगर हुआ इंसा तो मिट जाता है रंज
मुश्किलें मुझ पर पड़ी इतनी कि आसां हो गई ” 


कज़ा हो चाहे जनाज़ा हो असद की उस्तादी कलम कुछ यूँ कमाल करती है जैसे इस दुनिया से परे एहसास को भी, पहले जी भर के जिया हो और फिर शेर कहा हो | मिसाल देखिए :

“जला है जिस्म जहाँ, दिल भी जल गया होगा
कुरेदते हो जो अब राख, जुस्तजू क्या है ? ”

 

या फिर यह शेर :

“हुए हम जो मरके रुसवा, हुए क्यों न गर्के-दरिया
न कभी जनाज़ा उठता, न कहीं मज़ार होता ” 


ग़ालिब ने इश्क-ए-मोहब्बत के फ़लक पर भी किस तरह कब्ज़ा किया हुआ है | आइये देखते हैं | शेर कुछ यूँ है कि :

“इश्क ने ग़ालिब निकम्मा कर दिया,
वरना हम भी आदमी थे कमाल के ”


या फिर यह शेर जो तकरीबन हर आशिक-ए-ग़ालिब को याद होगा :

“दिल-ए-नादां ! तुझे हुआ क्या है ?
आखिर इस दर्द की दवा क्या है ? ”


ग़ालिब वो सागर है जिसकी तह तक जाना और समझ पाना सभी के हिस्से में नहीं है | आखिर दिल से लिखी बात को कोई दिलवाला ही तो समझ सकता है | खैर ग़ज़ल और इसकी दीवानगी का सिलसिला तो बदस्तूर ज़ारी है और हमेशा रहेगा | यह खत भले ही अब अपने अंतिम दौर में हो, मगर यह कोशिश थी उस सागर में से इक बूँद उठाने की, जिसकी चमक वाकई किसी मोती से कमतर नहीं है |

इसी इल्तजा के साथ की ग़ज़ल से या यूँ कहें कि ग़ालिब से अपना राब्ता यूँ ही कायम रहे, हम निकलते हैं किसी नामाबर की तलाश में, जो इस खत को अपनी मंजिल दे सके |

आपका मुरीद,
गौरव दीक्षित “राहत”

सोमवार, 11 दिसंबर 2017

वो लम्हा, एक मुद्दत और मैं



जाता हुआ वक्त सचमुच बेजुबां होता है | चुपचाप घड़ी-दर-घड़ी बिन अपने जाने का एहसास कराये बस बीत जाता है | यही वक्त बाद-मुद्दत के अचानक अपना एहसास करता है, जब वो एक दिन याद बनकर हमारे सामने आकार खड़ा हो जाता है | अब वही वक्त का कतरा, एक लम्हा, जाने अनजाने हमारे होशोहवास पर हावी होने लगता है | एक समय का बेजुबां अब बोल-बोलकर अपनी दास्ताँ सुनाता है | लम्हा-दर-लम्हा सब बयां करती है याद | रेशा-रेशा जेहन को टटोलती है, जाने कब के, कहाँ-कहाँ के राज खोलती है | वो राज जो हमने करीने से सजा कर रखे थे अपने सतही जेहन से दूर किसी और कोने में | वहीँ जहाँ से वो हमारे रोज़ में दखल न दे पाएं, हाँ मगर एक निश्चित वक्त के बाद जब हम अपनी यादों का संदूक खोलें तो हमें वैसे ही मिलें जैसे हमने उन्हें जिया था, कई अरसे पहले |

आज वही दिन है शायद | या यूँ कहूँ शाम है | कुछ यादों ने बरबस घेर लिया है मुझे | अपने आज में, अपने अतीत से घिरा मैं | अब मेरे लिए यह तय करना मुश्किल हो रहा है कि इसका शुक्रगुज़ार होऊं कि अपने सुनहरे अतीत को फिर से जी लिया आज या इसका अफ़सोस करूँ कि हमारे अतीत ने फिर हमारे आज का एक लम्हा जाया कर दिया |

वैसे यह कशमकश शायद हम सबकी है और आज नहीं तो कल हम सब इससे दो चार होंगे ही | बस  इतना ख्याल रखें कि इसे दो चार से चार-आठ या आठ-दस न होने दें | वरना हमारा आने वाला कल हमें दोष देगा कि हमने अपने आज में कोई ऐसा लम्हा जिया ही नहीं, जिसे हम बरसों बाद याद करके मुस्कुरा सकें |

लेखक - गौरव दीक्षित "राहत"
© सर्वाधिकार सुरक्षित

रविवार, 13 सितंबर 2015

नज़्म : जिंदा हूँ मैं !!


थामती है हाथ मेरा
वो हर रोज
और फिर
धीमी आवाज़ में
कुछ खुसफुसाहट होती है,
मानो कुछ
कहना चाहती हो मुझसे |


पर जाने क्यों
मुझको दुलार कर
वो धीरे से कहीं
खो जाती है |
उन्हीं हवाओं के दरमियाँ
जहाँ हम पहली बार मिले थे |

कुछ पल के लिए
छोड़कर मुझे
अनगिनत सवालों के बीच |

क्या कहना था उसको ?
शायद मुझे
आई थी समझाने
या फिर
दिन भर के ऐब गिनाने
या उसकी सुध लेने
जो घटता है मेरे भीतर |

खैर जो कुछ भी हो
पर यह सिलसिला जारी है
आज भी निर्बाध |

वो भले बोलती ना हो
पर बखूबी
कह जाती है अपनी बात |

दुनिया के इस
भागमभाग खेल में होते हुए भी
आज भी पूरी शिद्दत से
मिलता हूँ उससे |

इस उम्मीद पर कि
वो जो मेरी ज़िंदगी है
कहीं मुझसे दूर ना हो जाए |

शायद इसलिए ही आज भी
दिल से
जिंदा हूँ मैं |

हाँ इसीलिए
जिंदा हूँ मैं ||

कवि : गौरव दीक्षित "राहत"
© सर्वाधिकार सुरक्षित

शनिवार, 29 अगस्त 2015

एक छंदमुक्त कविता : कब समझोगे तुम आखिर


कब समझोगे तुम आखिर
फक्त रास्तों पे
तन्हा चलने से कोई
सफर नहीं होता | 


सारे सुख सुविधा के साधन
भर लिए हैं फिर भी
घर अपना यह क्यों
घर नहीं होता |

ताकता है क्यों
हर एक को सहारे की नज़र से
गर चेत जाते पहले तो
यह मंज़र नहीं होता |

जो सबको मिलने का खुद से
मौका न दिया होता
कोई दरिया ही रहता वो
समंदर नहीं होता |

आदमीं अक्सर खुद में कई
राज लिए होता है
जैसा दिखता है वो बाहर
भीतर नहीं होता |

कभी इतने बडबोले होते हैं
कि कुछ भी कह जाते हैं
और कभी पास हमारे ख़ामोशी का
उत्तर नहीं होता |

सुना था किस्से कहानियों में
जीतता है सच आखिर
मगर आज की दुनिया में ऐसा
अक्सर नहीं होता |

तुम बड़े ओहदों पर हो
तो अपना भी मान रखो
जो गिर जाए किसी के क़दमों में
काम का वो सर नहीं होता |

कलमकार : गौरव दीक्षित “राहत”
© सर्वाधिकार सुरक्षित

शनिवार, 21 मार्च 2015

ज़िंदगी की रुसवाई देख : ग़ज़ल

ज़िंदगी की रुसवाई देख |
फिर वहीँ ले आई देख ||

कद से बात नहीं बनती |
तू सोच की ऊँचाई देख ||

मुझको छोटा कहने वाले |
तू अपनी गहराई देख ||

इतना मीठा बोले है तू |
बातों की तुरपाई देख ||

औरों के ही ऐब दिखे हैं |
अपनी भी बुराई देख ||

पहले जग में मन लगा तू |
फिर जग की तन्हाई देख ||

खुद से बातें करते करते |
आँख  मेरी लग आई देख ||

पहले घर की आग बुझा तू |
फिर किसने आग लगाई देख ||

ज़रा सा छेड़ा क्या ज़िंदगी को |
कितनी वो घबराई देख ||

जी ऐसे किरदार में "राहत" |
कैद देख न तू रिहाई देख ||

© गौरव दीक्षित "राहत"

शनिवार, 24 जनवरी 2015

आपबीती : ज़िंदगी का जायज़ा

आज कई दिनों बाद उगती हुई शाम देखी | यूँ लगा कि जैसे महीनों बीत गए हों हमें मिले हुए | कभी वो दिन भी थे जब तुम्हारा इन्तेज़ार रहता था | अब ज़िंदगी ने मसरूफियत सिखा दी है हमें | खुद अपने साथ बैठे हुए भी, तो एक अरसा बीत गया है अब | वैसे इस दौड़ती-भागती ज़िंदगी के कायल हम कभी नहीं रहे, लेकिन कुछ पलों के लिए, बहा लिया था इसने हमें अपने साथ |

आज शाम के सिरहाने बैठे हुए जब मुड़ कर देखा तो बहुत कुछ छूटा हुआ पाया | कुछ अधूरे पन्ने, कुछ अधूरी बातें और कुछ अध-बुने रिश्ते भी थे; जिन्हें हम दूर कहीं छोड़ आए थे | या यूँ कहें की एक दूरी बना ली थी हमने उनसे | एक अदृश्य सा समझोता कर रखा था हमने अपनी यादों से, ना वो हमारे आज में दखल देंगी, ना हम उनको याद करके कोई कष्ट पहुंचाएंगे |

आज जब फिर हकीकत से सामना हुआ, तो यह मालूम हुआ कि बहुत दूर निकल आएँ है हम अपनों की गली से | जिसे अब हम "सपनों की गली" भी कहने लगे हैं; क्योंकि कभी कभी लगता है कि यह हमारी ज़द में नहीं है | ऐसे में अपने ही एक शेर से हमने, आज अपनी ज़िंदगी का जायज़ा लिया | और जाने-अनजाने खुद को मना लिया |

वरक पलट लिए जो दिल के, 
तो जैसे खोई खुशी मिल गई |
गर ज़िंदगी इसी का नाम है तो,
हाँ मुझे मेरी ज़िंदगी मिल गई ||

शनिवार, 13 दिसंबर 2014

तो क्यों न मैं इस जहाँ से बगावत करूँ ?



क्या चमक थी आँखों में,
सपने हज़ार रहते थे |
जिंदगी तुझसे मिलने को
हम बेक़रार रहते थे |
फिर भी इन खावाबिदा आँखों को,
जब सहारा न दे पाए तेरे उसूल |  
तो क्यों न मैं इस जहाँ से बगावत करूँ ?

चाँद तकिये तले रहता था,
सितारे छत पर जगमगाते थे |
ग़ज़ल ज़ेहन में रहती थी,
हम लिखते थे, गुनगुनाते थे |
आज मगर तेरी बंदिशों में,
नज़र नहीं आते कोई दूर तक |
तो क्यों न मैं इस जहाँ से बगावत करूँ ?

रिश्ते क्या हैं,
खुद-ब-खुद बन जाते हैं |
पहले हम मिलते हैं,
दिल भी फिर मिल जाते हैं |
और इस पर भी जब कोई रास्ता,
तेरी गली से नज़र न आए |
तो क्यों न मैं इस जहाँ से बगावत करूँ ?

हम हुनर पे रखते हैं भरोसा,
तुम्हें यकीं कागजी सनद पर है |
है सवाल गर यह तो,
काबिलियत के कद पर है |
हम निभाने में रहे जिम्मेवारी,
और तुम जताने में |
तो क्यों न मैं इस जहाँ से बगावत करूँ ?

रविवार, 9 नवंबर 2014

आज कई दिनों बाद जो हम दोनों ने शाम देखी



आज कई दिनों बाद जो हम दोनों ने शाम देखी |

स्वर्णिम तेज लिए सूरज का धीरे धीरे ढलना .....
जिस कारण किरणें बादलों से छन कर आ रही थी |
एक नई सुबह को फिर मिलने का वादा करके .....
वो भी होले होले अपने बिस्तर में छुप गया शायद ||

आज कई दिनों बाद जो हम दोनों ने शाम देखी |

इधर पंछियों का कतारों में अपने घर वापस जाना .....
शाम की रुमानियत को यह निहित सन्देश भी दे गया की |
चाहें दिन भर कहीं भी रहो, कितना भी व्यस्त रहो .....
शाम ढले अपने, अपनों की खातिर घर को रुख ज़रूर करो ||

आज कई दिनों बाद जो हम दोनों ने शाम देखी |

मंद मंद हवा के झोंके, बारहा हमसे टकराकर .....
हमें हमारी गुमशुदगी का बखूबी एहसास करवा रहा थे |
ऐसी कितनी कहानियों का हम हिस्सा नहीं हो पाए .....
सचमुच इतने दिनों में बहुत कुछ है जो हमसे छूटा है ||

आज कई दिनों बाद जो हम दोनों ने शाम देखी |

तभी साथ वाली गलियों में कुछ लोग .....
दिन भर की थकन लेकर वापस घर को लौट आये थे |
बच्चे बाहर बेफिक्री से खेलने में मस्त थे ......
इस उम्मीद में कि पापा आयेंगे तो ज़रूर कुछ लायेंगे ||

आज कई दिनों बाद जो हम दोनों ने शाम देखी |

पीछे आरती और अजान रोज की तरह .....
इस शाम की अनोखी कहानी में अपना संगीत दे रहे थे |
जैसे इंसान को मुँह चिड़ा रहे हो कि तुम .....
लगे रहो अपनी ज़द्दोज़हद में, हम ऐसे ही निर्बाद्ध रहेंगे ||

आज कई दिनों बाद जो हम दोनों ने शाम देखी |

ऐसे में हम, यानी मैं और मेरा कवि मन ......
रिहायशी पांच मंजिला ईमारत की खुली छत पर |
निपट अकेले में बैठेकर, शाम को और .....
कुछ कुछ जिंदगी को भी आता जाता देख रहे थे ||

और फिर अपना ही एक शेर याद करते हुए हम ...
...जिंदगी का खुद से दुबारा तारुफ्फ़ करवाने में लग गए :

समय जो हाथों से फ़िज़ूल खो रहा है |
  गर्द में मिलके वो भी धूल हो रहा है ||

शनिवार, 1 नवंबर 2014

हकीकत से मिलती सपनो वाली दुनिया



सपने हमेशा इंसान को जीने की हिम्मत दे जाते है | वक्त जो हमेशा हमसे तेज चलने को आमादा है, हर चीज को हमसे दूर करने की कोशिश करता रहता है | कभी – कभी सफल भी हो जाता है अपने इस नापाक इरादे में | हम आज के आनंद वाली धारणा के खिलाफ नहीं हैं लेकिन न जाने क्यों हमें सुकून उस हकीकत में मिलता है, जो कभी हमने सपनो में देखी थी | सपने जो अपने मुकाम तक पहुंचे, जिन्हें अपने हिस्से की उम्मीद भी मिली और होंसला भी | आज अपनी मंजिल पर पहुंचकर दूर किसी फलक के सितारे हो गए हैं; वो सारे सपने | हर एक सपना, आज हकीकत बन अपनी ही चमक बिखेरता हुआ, इस दुनिया को छोटा साबित कर रहा है |

लोगों का हुजूम भी हमें कभी अच्छा नहीं लगा | हमें तो खुले आँगन में अकेले लेटकर अपनी ही खवाबों की दुनिया में धूप सेकना हमेशा भाता था | या फिर बड़ी - बड़ी खिड़कियों वाले अपने दफ्तर से सुदूर पहाड़ों को घंटों निहारते रहना | संग में कुछ पुराने नगमें यकबयक ज़ेहन में घर कर जाते | और फिर क्या; अगला पल तब बीतता जब हम गुनगुनाने लगते | सच में बड़े ही सुकून भरे होते थे वो फुर्सत के लम्हें | पर अब मसरूफियत ने घेर रखा है | चारों तरफ लोग हैं, अपने अपने काम लिए | सभी औरों के चक्कर लगाने में व्यस्त हैं, जैसे खुद की किसी को परवाह ही नहीं | पर हम इन जग निर्मित सरोकारों से कोई वास्ता नहीं रखते | अपनी धुन में रहते हैं, अपनी मर्ज़ी की करते हैं | या यूँ कहें जीवन रूपी गाड़ी को अपने ही अंदाज में हांक रहे हैं और इसी जद्दोजहद में इसका भरपूर लुत्फ़ भी उठा रहे हैं |

हाँ भले ही इस तरह भागदौड़ वाली जिंदगी जीने में कुछ तौर तरीके बदल गए हैं, साधन भी बदल गए हैं लेकिन मिजाज़ नहीं बदला | वक्त के दामन से एक लम्हां चुराकर, लिखने का अवसर निकाल ही लेता हूँ | और इसका नतीजा, वही सुकून जिसकी तलाश में सब जिंदगी भर भटकते हैं पर जो हमारा पुराना साथी रहा है |

तो फिर आप सोच क्या रहे हैं अबतक ? कुछ समय अपने लिए निकालिए | बंद पड़ी अलमारी से अपने पुराने शौक को आज़ाद करिये | ख़वाब देखना शुरू करिये, ऐसे ख़वाब जो आपके अपने हों, अजीज़ हों | फिर देखिए कैसे कुछ ख़वाब आपके शौक से मिलकर एक जूनून कायम करते हैं | फिर आपके ख़वाब सिर्फ ख़वाब न रहकर दरअसल एक हकीकत में तब्दील हो जायेंगे | और आप भी मेरी तरह यह फक्र से कह पाएंगे “ हाँ हमने देखी है हकीकत से मिलती सपनो वाली दुनिया ” |